




97 देशों में शांति की स्थिति खराब हुई है, जो 2008 में वैश्विक शांति सूचकांक की शुरुआत के बाद से किसी भी वर्ष की तुलना में अधिक है।
गाजा और यूक्रेन में संघर्ष वैश्विक शांति में गिरावट का मुख्य कारण थे, क्योंकि 2023 में युद्ध में मरने वालों की संख्या 162,000 तक पहुंच गई।

वर्तमान में 92 देश अपनी सीमाओं से बाहर संघर्षों में संलिप्त हैं, जो कि जीपीआई की स्थापना के बाद से किसी भी समय की तुलना में अधिक है।

रिपोर्ट में दुनिया की 99.7% आबादी को शामिल किया गया है और सूचकांक को संकलित करने के लिए अत्यधिक प्रतिष्ठित स्रोतों से 23 गुणात्मक और मात्रात्मक संकेतकों का उपयोग किया गया है। इन संकेतकों को तीन प्रमुख डोमेन में समूहीकृत किया गया है: चल रहा संघर्ष, सुरक्षा और सुरक्षा, और सैन्यीकरण।
अपनी तरह की पहली सैन्य स्कोरिंग प्रणाली से पता चलता है कि अमेरिकी सैन्य क्षमताएँ चीन से तीन गुना अधिक हैं।
हिंसा का वैश्विक आर्थिक प्रभाव 2023 में बढ़कर 19.1 ट्रिलियन डॉलर हो गया, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 13.5% है।
संघर्ष के संपर्क में आने से सरकारों और व्यवसायों के लिए आपूर्ति श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण जोखिम पैदा होता है।
जीपीआई की स्थापना के बाद से सैन्यीकरण में सबसे बड़ी वार्षिक गिरावट दर्ज की गई, जिसमें 108 देश और अधिक सैन्यीकृत हो गए।
110 मिलियन लोग या तो शरणार्थी हैं या हिंसक संघर्ष के कारण आंतरिक रूप से विस्थापित हैं, तथा 16 देशों में अब पांच लाख से अधिक शरणार्थी रह रहे हैं।
उत्तरी अमेरिका में सबसे बड़ी क्षेत्रीय गिरावट देखी गई, जो हिंसक अपराध और हिंसा के भय में वृद्धि के कारण हुई।
11 जून 2024 को प्रकाशित हुई ग्लोबल पीस इंडेक्स की रिपोर्ट चिंताजनक है। इसके अनुसार हाल में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में 56 संघर्ष हुए हैं। दुनिया को तरक्की के रास्ते पर ले जाना हो तो सर्वप्रथम वैश्विक शांति ज़रूरी है। इसके लिये सभी देशों को संयम बरते जाने की ज़रूरत है। जो देश हथियारों के सौदागर हैं पहले वे ही युद्ध की स्थिति पैदा करते हैं, फिर शांति की बात करते हैं और अंततः युद्ध कराकर अपने हथियार बेचते हैं।अच्छी-खासी तबाही कराकर वे युद्ध रूकवा देते हैं। इसके बाद उन देशों में निर्माण कार्यों के ठेके आदि लेते हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद के पिछले लगभग 8 दशकों में इतनी अधिक अशांति कभी नहीं रही। यह रिपोर्ट आंकड़ों में प्रकाशित हुई है लेकिन ऐसी अशांति दुनिया को किस ओर ले जा रही है, यह बतलाने की ज़रूरत नहीं। इन संघर्षों के कारण होती तबाही से विकास पीछे रह जाता है। रिपोर्ट दुनिया भर में शांति बहाली के नये प्रयासों की ज़रूरत को भी दर्शाती है। संघर्षों में एक ओर देशों को अपने बजट का बड़ा हिस्सा सेनाओं, गोला-बारूद आदि पर खर्च करना पड़ता है जिसके कारण नागरिकों की सुविधाओं में कटौतियां होती हैं। विस्थापन, मौतें, भुखमरी, बीमारियाँ, अशिक्षा आदि युद्धों का प्रत्यक्ष प्रतिफल है। स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी, आवास व्यवस्थाएँ या तो सीधी लड़ाइयों में बर्बाद होती हैं अथवा उन पर खर्च करना उन देशों की सरकारों के लिये कठिन हो जाता है जो संघर्षों में शामिल होते हैं। वैश्विक शांति के बिना मानव के विकास और उसकी गरिमा की कल्पना नहीं की जा सकती। यह स्थिति सभ्य समाज के अनुकूल नहीं है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 11 करोड़ लोग लड़ाइयों के चलते विस्थापित हुए हैं या शरणार्थी शिविरों में जीवन जी रहे हैं।
रिपोर्ट में के अनुसार कि 92 देशों की सीमाओं पर या तो युद्ध जारी हैं अथवा वहाँ युद्ध सदृश्य परिस्थितियाँ हैं। 97 देशों में शांति की स्थिति में गिरावट दर्ज की गयी है।पिछले साल संघर्ष से संबंधित 162,000 मौतें दर्ज की गईं। पिछले 30 सालों में यह दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा था, जिसमें यूक्रेन और गाजा में संघर्षों के कारण लगभग तीन-चौथाई मौतें हुईं। यूक्रेन में आधे से ज़्यादा मौतें हुईं, जहाँ संघर्ष से 83,000 मौतें हुईं, जबकि अनुमान है कि अप्रैल 2024 तक फिलिस्तीन में कम से कम 33,000 मौतें होंगी। 2024 के पहले चार महीनों में, वैश्विक स्तर पर संघर्ष से संबंधित मौतों की संख्या 47,000 थी। अगर इस साल के बाकी दिनों में भी यही दर जारी रही, तो यह 1994 में रवांडा नरसंहार के बाद संघर्ष से होने वाली मौतों की सबसे ज़्यादा संख्या होगी। 2023 में हिंसा का वैश्विक आर्थिक प्रभाव $19.1 ट्रिलियन या प्रति व्यक्ति $2,380 था। यह $158 बिलियन की वृद्धि है, जो मुख्य रूप से संघर्ष से जीडीपी घाटे में 20% की वृद्धि से प्रेरित है। शांति निर्माण और शांति स्थापना पर व्यय कुल $49.6 बिलियन था, जो कुल सैन्य खर्च का 0.6% से भी कम है।
आइसलैंड सबसे शांतिपूर्ण देश बना हुआ है, यह स्थान 2008 से ही उसके पास है, उसके बाद आयरलैंड, ऑस्ट्रिया, न्यूज़ीलैंड और सिंगापुर हैं – जो शीर्ष पांच में नए प्रवेशकर्ता हैं। यमन ने अफ़गानिस्तान की जगह दुनिया का सबसे कम शांतिपूर्ण देश बन गया है। इसके बाद सूडान, दक्षिण सूडान, अफ़गानिस्तान और यूक्रेन हैं। मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (एमईएनए) सबसे कम शांतिपूर्ण क्षेत्र बना हुआ है। यह दुनिया के दस सबसे कम शांतिपूर्ण देशों में से चार और दो सबसे कम शांतिपूर्ण देशों, सूडान और यमन का घर है। इसके बावजूद, यूएई ने इस क्षेत्र में शांति में सबसे बड़ा सुधार दर्ज किया – 2024 में 31 पायदान ऊपर चढ़कर 53वें स्थान पर पहुंच गया।
यद्यपि पिछले 18 वर्षों में शांति के अधिकांश संकेतकों में गिरावट आई है, फिर भी 112 देशों में हत्या की दर में सुधार हुआ है, जिसमें कमी आई है, जबकि 96 देशों में अपराध की धारणा में सुधार हुआ है। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण यूरोप के तीन चौथाई देशों ने रक्षा बजट में व्यापक बढ़ोतरी की है। वहाँ पिछले दो वर्षों से अशांति बनी हुई है। ऐसे ही, इज़रायल के साथ फिलीस्तीन, ईरान आदि की लड़ाइयों के कारण बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है। हज़ारों लोग मारे गये हैं और बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए हैं। इन युद्धों के कारण अधोरचना का विनाश सर्वाधिक होता है। सड़कें, पुल, स्कूल भवन, अस्पताल, आवासों को जो क्षति होती है वह नागरिकों का सीधा नुकसान है। युद्ध चलने तक पुनर्निर्माण सम्भव नहीं होता और युद्ध रूकने के बाद देशों को बदहाली से उबरने में दशकों लग जाते हैं। युद्ध के कारण माली हालत जर्जर हो जाती है। इन देशों के नागरिकों को अपना जीवन बदहाली में काटना होता है। अशांति का असर किस प्रकार से लोगों के जीवन पर पड़ता है वह इस तथ्य के आधार पर आंका जा सकता है कि इस रिपोर्ट में बताया गया है कि लड़ाईयों के कारण 19 लाख करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ है जो दुनिया की जीडीपी का 13.5 फीसदी है- अमूनन प्रति व्यक्ति 2 लाख रुपये का नुक़सान।
इन स्थितियों में संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका पर भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। अक्सर माना जाता है और जो बड़े पैमाने पर सही भी है कि बड़े और शक्तिशाली देशों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ का बस नहीं चलता। उपरोक्त उल्लिखित दोनों ही देशों में ऐसा होता दिखा है। यहाँ यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि बहुत से शक्तिशाली देश हथियार उत्पादक भी हैं जिनकी दिलचस्पी शांति में कम युद्ध या तनाव की स्थिति को बनाये रखने में होती है। दुनिया में चाहे शीत युद्ध समाप्त हो गया हो और विश्व एकध्रुवीय बन गया हो तब भी किसी संघर्ष या युद्ध के दौरान देखा जाता है कि दुनिया दो धड़ों में विभाजित हो जाती है। कुछ देश लड़ाई में शामिल एक पक्ष के साथ खड़े होते हैं तो कुछ दूसरे पक्ष के साथ। लड़ाई हो या न हो, परन्तु तनाव की यह स्थिति भी शक्तिशाली व हथियार निर्माता देशों के मुफ़ीद होती है। लड़ने के लिये अथवा सुरक्षा के मद्देनज़र उनके हथियार बिकते हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ एवं तटस्थ देशों की शांति की अपीलों को अनसुना कर कई देश तनाव को बढ़ाने के प्रयास करते हैं।
इस रिपोर्ट में दक्षिण एशिया के सम्बन्ध में जो रिपोर्ट है वह कुछ सुकून भरी हो सकती है। पिछली रिपोर्ट के बाद भारत एवं उसके पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, श्रीलंका आदि की रैंकिंग सुधरी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में कहें तो उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। तीसरी दुनिया कहे जाने वाले एशियाई, अफ्रीकी व लातिन अमेरिका के अविकसित व विकासशील देशों को अशांति का खामियाजा अधिक भुगतना पड़ता है। गुट निरपेक्ष आंदोलन के एक तरह से निष्क्रिय हो जाने के बाद भारत की ओर से शांति की पहल होनी बन्द हो गयी है वरना इन परिस्थितियों में उसकी सुनी जाती थी। आंदोलन के पीछे महात्मा बुद्ध के पंचशील तथा महात्मा गाँधी के अहिसा व शांति का संदेश होता था। आज भी इन दोनों के साथ जवाहरलाल नेहरू की बातें वैश्विक शांति के सन्दर्भ में प्रासंगिक बनी हुई हैं।
युद्ध एक कुटिल अर्थप्रणाली का हिस्सा है जिससे कुछ देश ही लाभान्वित होते हैं और ज्यादातर तबाह। कभी धर्म तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर होती! लड़ाइयां सरकारों के लिये तो फ़ायदेमंद हो सकती हैं पर नागरिकों की भलाई वैश्विक शांति में ही निहीत है। इसलिये शांति के पक्ष में जनता को आवाज उठानी चाहिये। देशों के बीच परस्पर सौहार्द्र व भाई-चारा ज़रूरी है। इसके लिये सम्पूर्ण निःशस्त्रीकरण और असैन्यीकरण अंतिम उपाय हैं।
शोधार्थी
रुपेश रॉय
राजनीति विज्ञान विभाग
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा

