हिन्दी विभाग में धूमधाम से मनाया गया हिंदी दिवस

 

हिंदी दिवस के उपलक्ष्य पर भाषण एवं कविता पाठ प्रतियोगिता का हुआ आयोजन

दरभंगा(नंदू ठाकुर):_ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में हिंदी दिवस पर विभागाध्यक्ष प्रो उमेश कुमार की अध्यक्षता में संगोष्ठी व प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। 14 सितंबर को हिंदी दिवस के तौर पर पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है। राजभाषा के रूप में हिंदी के महत्व और कार्यान्वयन को केंद्र में रखकर भारतवर्ष के सभी क, ख और ग राज्यों में इसे मनाया जाता है। इसी कड़ी में ‘हिन्दी का सांस्कृतिक महत्व’ विषयक संगोष्ठी और ‘तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी’ विषय पर भाषण प्रतियोगिता तथा मौलिक काव्य पाठ का आयोजन हुआ।

अध्यक्षीय उद्बोधन में हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार ने कहा कि हिन्दी आज अपनों से ही हार रही है। यह स्मरण रखना होगा कि हिन्दी तभी तक जिंदा है, जब तक उसके साथ संस्कृति जुड़ी हुई है। संस्कृति के बल पर ही हिन्दी ने अपना वैश्विक मुकाम हासिल किया है। इंडोनेशिया जैसे देशों में रामायण का मंचन होता है, मॉरीशस, त्रिनिनाद सहित दुनिया भर के अन्य देशों में भी हिन्दी का सांस्कृतिक प्रभाव स्पष्टतः देखने को मिलता है। यह हिन्दी की विलक्षण सांस्कृतिक जड़ों के कारण ही संभव हुआ है, न किसी सत्ता संरक्षण या जोर–ज़बरदस्ती से।

हिन्दी को केवल नौकरी–रोज़गार तक सीमित कर नहीं बल्कि उसकी सांस्कृतिक विस्तृत परिधि को तलाशना होगा। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हिन्दी के बहुलतावादी संस्कारों को आत्मसात करने का संकल्प लेना होगा तभी हिन्दी दिवस की सार्थकता है।

 

प्रो कुमार ने आगे कहा कि तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है क्योंकि केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा जैसी दूरदृष्टि रखने वाली संस्थाएं दिन–रात इस दिशा में कार्यरत हैं। यह जानकार आपको सुखद आश्चर्य होगा कि वहां हिन्दी के तकनीकी विकास के लिए लेबोरेट्री है। भाषा के अभियांत्रिक पक्ष पर भी समान रूप से ध्यान देना आज की ज़रूरत है।सभा को संबोधित करते हुए विभागीय सह–प्राचार्य डॉ. सुरेंद्र सुमन ने कहा कि हिन्दी अनेक बोलियों, उपभाषाओं, तत्सम, तद्भव शब्दों से मिलकर बनी है। इसी तरह खड़ी बोली से ही हिन्दी के साथ उर्दू भी बनी है। सामासिकता इस भाषा का प्राण है। हिन्दी को सामासिक संस्कृति से काट दिया जाएगा तो भाषा ही मृतप्राय हो जाएगी। लेकिन सत्ता–प्रतिष्ठानों के द्वारा मानो ऐसी ही कवायदें नित नए रूप में की जा रहीं हैं। सारी संचिकाएं अंग्रेजी में लिखवाने के बाद, कार्यालय के सभी कामकाज अंग्रेजी में करवाने के बाद हमसे कहा जाता है कि हिन्दी दिवस मनाओ। यह कैसी विडंबना है? इस विडंबना की शुरुआत अंग्रेजों के शासनकाल में 14 सितम्बर 1949 ई. को हुई थी, जब अंग्रेजी हुकूमत ने एक भाषा की एक लिपि तय की। यानी हिन्दी अलग, उर्दू अलग। यह हमारी साझी विरासत पर हमला था। जिसे स्वाधीन भारत में सत्ता ने भिन्न रूप में अंजाम दिया। हमें भाषा के इतिहास के नाम पर पढ़ाया गया कि हिन्दी संस्कृति से निकली है। तो सवाल है संस्कृत कहां से निकली है? तो बताया जाता है कि वह तो देववाणी है। ऐसी अवैज्ञानिक, अतार्तिक समझ से हम किन निष्कर्षों पर पहुंचेंगे? भाषा को संकीर्णता से मुक्त तार्किक और सही इतिहास बोध के साथ समझना बहुत आवश्यक है।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए सह–प्राचार्य डॉ. आनंद प्रकाश गुप्ता ने कहा कि 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को राजभाषा का दर्जा भले ही मिल गया हो लेकिन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दी ने शताब्दियों के संघर्ष से अपना रास्ता बनाया है। हिन्दी की शक्ति ही थी कि छः शासकों का उतार–चढ़ाव देखने वाले एक मुस्लिम कवि अमीर खुसरो ने गर्व से घोषणा की कि मैं हिंदवी का कवि हूं। हालांकि यह बहुत बड़ा विरोधाभास है कि कबीर, तुलसी, विद्यापति, खुसरो, भारतेंदु, गांधी, सी.राजगोपालाचारी को पढ़ने वाले और हिन्दी साहित्य के इतिहास व व्याकरण सर्वप्रथम विदेशी लेखकों ने लिखा। हिन्दी के उद्भव और विकास पर गर्व करते हुए इस यथार्थ को भी याद रखना होगा ताकि भाषा के प्रति कर्तव्यबोध बना रहे।

कार्यक्रम का विषय प्रवेश शोधार्थी कंचन रजक ने तथा धन्यवाद ज्ञापन शोधार्थी समीर ने किया।

 

शनिवार को आयोजित भाषण प्रतियोगिता एवं काव्य–पाठ में शोधार्थी दुर्गानंद ठाकुर, मलय नीरव, रोहित पटेल, शिवम झा शांडिल्य, रूपक कुमार, अंशु कुमारी, खुशबू कुमारी, संध्या राय, मनोज कुमार, जयप्रकाश कुमार एवं स्नातकोत्तर छात्र विक्रम कुमार, अमरेन्द्र, अभिषेक, कृति, पम्मी कुमारी, स्नेहा, राहुल राज, दर्शन सुधाकर, राजनाथ पंडित, गुंजन कुमारी आदि ने भाग लिया। इस अवसर पर विभाग की छात्र–छात्राएं उपस्थित थी।

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